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कविता

बिखरने का सौंदर्य

प्रतिभा कटियार


मुस्कुराने लगते हैं कॉफी के मग
दीवारों पर उगने लगती हैं धड़कने
दरवाजे जानते हैं दिल का सब हाल
खिड़कियों बतियाती ही रहती हैं घंटों
खाली सोफों पर खेलते हैं यादों के टुकड़े
दीवार पर लगे कैलेंडर को लग जाते हैं पंख
झुकती ही चली आती हैं अमलताश की डालियाँ
घर के जालों को मिलने लगता है प्यारा सा आकार
जिंदगी से होने लगता है प्यार
कलाई घडी मुड़-मुड़ के देखती है बीते वक्त को
रेशमी परदे कनखियों से झाँकते हैं खिड़की के उस पार
अचानक गिरता है कोई बर्तन रसोई में
भंग करता है भीतर तक के सन्नाटे को
फर्श पर बिखरता है एक राग,
सारी आकुलता को बाँहों में भर लेता है
अपना कमरा
उलझी अलमारियों में ढूँढ़ते हुए कोई सामान
मिल जाता है कुछ जो खोया हुआ था कबसे
पलकें झपकाते हुए बिना कहे गए शुक्रिया
का प्रतिउत्तर देती है अलमारी
कुर्सी का कोई सिरा चुपके से थाम लेता है
आँचल का एक सिरा
और ठहर जाता है वक्त का कोई लम्हा
फर्श पर बिखरी हुई किताबों में उगती हैं शिकायतें
पूरे घर में बिखरा हुआ अखबार कहता है
देखों, इसे कहते हैं बिखरने का सौंदर्य
दरवाजे पर टँगी घंटियाँ अचानक बज उठती हैं
कहती हैं कि ये कॉलबेल किसी और के नहीं
खुद अपने करीब आने की है आहट है
सचमुच, चीजें तब चीजें नहीं रह जातीं
जब हम उनसे लाड़ लगा बैठते हैं...
 


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